पीछे रेडियो पे गाना चल रहा है....
हाथ थे मिले की जुल्फ चाँद की सवार दूँ
होठ थे खुले की हर बहार को पुकार दूँ
दर्द था दिया गया की हर दुःखी को प्यार दूँ
और सांस यों की स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ
और मैं सोच रहा हूँ....
जो यकीनन पाया उसका,
जो शायद पाया होगा उसका भी,
जो पा सकते थे... नही पाया, लेकिन उसकी जानिब दो कदम चले तो सही
इसी खुशी का एहसास,
खुद ही खुद को, बिना-थके, दिलाते रहने का ही
जश्न मनाने के इस रोज़ पर,
कभी जो ख़्वाब हुआ करते थे अपने, उनकी तरफ मुड़ के देखना,
अपनी बेहद मामुली कामयाबी का हिसाब लगाना,
शायद भीड़ को पसंद ना हो,
ऐसा सोचना भी शायद उनके रंगीन माहौल का
बेरंग करनी की जुर्रत करता हो
.....
जानता हूँ....
वाक़िफ़ हूँ इस संभावना से
मगर इन्सान का दोगलापन जानने वाला कोई
शादी का खोखलापन जानने वाला कोई
अगर बारात में नाचने का हौसला नही रख पाए
तो क्या करे?
और हम अजान से, दूर के मकान से
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे

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